मोह माया प्रेम कलैश में
रिश्ते नातों के द्वेष में
जो मेरा कभी था ही नही
उसे पाने की कोशिश में
किसी अन्य के लिए स्वयं का
सर्वस्व समर्पण कर के
कितना खो चुका हूंँ मैं
क्या ख़ुद को खोना
इतना समय व्यर्थ करना
यथार्थ था? शायद नहीं
चंद लफ़्ज़ की डोर में टिके
काल्पनिक रिश्तों में
मैं ठहर सा गया था
बिखरा है चहुमुखी जो
मोह माया का जाल
उसमे कही मैं फस सा गया था
वासनाओं आलिंगन की ख़्वाहिशों में
प्रेम का अर्थ मैं भूल सा गया था
कुछ चन्द लफ़्ज़ के भंँवर में
इस दुनिया की उलझनों में
मैं उलझ सा गया था
भूल गया था की
मैं अजेय हूंँ
अस्तित्व है मेरा भी
मैं स्वयं में ही पूर्ण सदैव हूंँ
मंजिल अब चंद कदम दूर ही तो है
बिन सोए अब बस
कुछ रातें ही और तो काटनी हैं
फिर तेरी शर्ट भी
कहलाने लगेगी वर्दी
कुछ चिन्ह उस पर सजकर
मेरे चेहरे की चमक बढ़ाएंँगे
जो सोया नही हूंँ
इतनी रातों से
आंँखे हैं जो थकान में लाल लाल सी
गोद में सर रखने को तरसा हूंँ
जल्द ही वो दिन आएगा जब
एक दिन आराम से सो लूंँगा
होगी गोद मिट्टी की और
मैं तिरंगे की चादर ओढ़ लूंँगा...
~अकर्मण्य
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