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Forwarded from शिलोञ्छवृत्ति
सिलसिला कुछ यूं रहा कि तुम मेरी पहुंच से बाहर थे, जरा करीब आए तो लगा औकात से बाहर हो... करीबी बढ़ी तुम करीबी हो गए तेरी सोच से अभी भी बाहर थे, पर जब हम पहली बार मिले तो लगा इस जहां से बाहर हो,, हालांकि साथ थे मेरे पर महसूस होता था हाथ से बाहर हो, एक दिन बत्तमीजी पर उतर आए जख्मी दिल ने कहा तुम साला समझ से बाहर हो... छोड़ के चले गए मन रोया क्यों नजर से बाहर हो, एक पल में बेगाना कर गए दिल ने कहा तुम साला हद से बाहर हो... तुम्हारा बाहर जाने का शौक समझ आया जरा देर से जम मैंने कलम उठाई पर सच मानो तुम मेरे जहन से कतई बाहर हो।
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