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जीव कब जाग्रत् होता है (संतप्रवर श्रद्धेय श्रीपथिक जी महाराज) 🔱भारतवर्ष🔱 अज्ञानान्धकारमें मोहनिद्राके वशीभूत मानव तभी जागते हैं, जब कालान्तरमें ज्ञानालोकद्वारा अपनी बुद्धिसे सुखकी पूर्तिका अनुभव करते हैं। इसके पहले मुख स्वप्नाभिभूत मानव तब जागते हैं. जब अचानक ही कोई असह्य दुःखाघात होता है। इसके लिये पहले कोई-कोई भाग्यवान् सुसंस्कारी मानव सन्त सद्‌गुरुजनोंके हृदयस्पर्शी सत्य-ज्ञानगानको सुनकर ही जाग उठते हैं। कोई ऐसे भी पाशव प्रकृति-प्रधान मानव हैं कि सुखद इच्छाओंकी पूर्ति होते रहनेपर भी नहीं जाग्रत् होते, अनेकों प्रकारके दुःखाघातोंके होते रहनेपर भी नहीं जाग्रत् होते। ऐसे मनुष्योंको उस समयतक मोहनींद में सुख-दुःखके स्वप्न देखते हुए समय बिताना पड़ता है, जबतक भयानक दुःखका कठोराघात न हो; क्योंकि पूर्ण दुःखाघातसे हो मानव विचार-प्रकाशमें जाग्रत् होता है। विचार-प्रकाशमें ही जीवकी ऐसी दृष्टि खुलती है कि जिसमें असत्संगका दुष्परिणाम दिखायी देता है, तभी सत्संगको जिज्ञासा उदय होती है; क्योंकि सत्संगसे ही सद्‌गुणोंका विकास होता है। वास्तवमें विशेष रूपसे जागृति तो सन्त-सद्‌गुरुके सुयोगसे ही होती है. यदि यह सुयोग सुलभ न हो, तो करोड़ों वर्ष जीव अज्ञानान्धकारमें जीवन व्यतीत करता रहता है, लेकिन न तो सत्यासत्यका ज्ञान ही होता है और न आत्माके दिव्य गुणोंका विकास ही होता है। वास्तवमें विशेषरूपसे जागृति तो सन्त-सद्‌गुरुके सुयोगसे ही होती है, यदि यह सुयोग सुलभ न हो. तो करोड़ों वर्ष जीव अज्ञानान्धकारमें जीवन व्यतीत करता रहता है, लेकिन न तो सत्यासत्यका ज्ञान ही होता है और न आत्माके दिव्य गुणोंका विकास ही होता है। जाग्रत् पुरुषका लक्षण 'जानिअ तबहि जीव जग जागा। जब सब बिषय विलास विरागा ।।' वास्तवमें वही जाग्रत् पुरुष हैं, जो संसारके नश्वर सुख भोगसे विरक्त हो रहे हैं। वही जाग्रत् पुरुष हैं, जिनके मनसे शोक-मोह नष्ट हो गये हैं, जिनका अन्तःकरण पवित्र हो गया है, जहाँ संसारके किसी पदार्थके प्रति राग नहीं रह गया है। वह भी जाग्रत् मनुष्य हैं, जो बाल्यकाल अथवा युवावस्थाके प्रारम्भसे ही सत्कर्म, सद्भाव सद्ज्ञान द्वारा अपने परम लक्ष्यकी ओर अग्रसर हो रहे हैं। ऐसे जाग्रत् पुरुष स्वल्पायुमें ही वृद्ध हैं, बल्कि वे वृद्ध नहीं हैं, जो कि सौ वर्ष जीते हुए भी सत्यज्ञानसे विमुख रहकर मोहनिद्रामें ही जीवनको निरर्थक खो रहे हैं। जो सद्ज्ञानसे पूर्ण हैं, वही जाग्रत् पुरुष हैं। वह भी जाग्रत् पुरुष हैं, जो यम, नियम, संयमादिके द्वारा प्रारम्भिक जीवनसे ही सावधान होकर इन्द्रियों समेत मनको वशमें करके इन सबके सच्चे स्वामी हो रहे हैं, जो परमार्थ-सिद्धिके लिये सन्त-सद्‌गुरुको शरणमें रहकर निरन्तर उनके ही निर्देशानुसार जीवन-यात्रा कर रहे हैं। ऐसे श्रद्धालु पुरुषोंको निःसन्देह सत्यका बोध होगा और वह अपने परम लक्ष्यको प्राप्त करेंगे। जो जाग्रत् पुरुष हैं, उन्हीं को दिखायी पड़ता है कि इस संसारमें जीवनका समय बहुत ही कम है और कार्य बहुत बड़ा करना है, शक्ति अति स्वल्प और सीमित है परंतु यात्रा बहुत लम्बी पूरी करनी है। उन्हें यह भी दिखायी देता है कि प्रत्येक दुःख अपने ही दोषोंके कारण आता है, प्रत्येक बन्धन अपने ही बनाये हुए हैं और उन बन्धनोंसे मुक्त होना अपने ही अधिकारमें है। जो जाग्रत् पुरुष हैं, उन्होंको यह ज्ञान होता है कि जो शुभ कार्य अपने ही अज्ञानके कारण, अपने हो आलस्य-प्रमादके कारण सैकड़ों जन्मोंसे पूरा नहीं हो सका, वह परम शान्ति एवं मुक्तिका महान् कार्य अपने सद्ज्ञानके बलसे, अपने ही प्रयत्नसे एवं शक्ति और समयके सदुपयोगसे कुछ ही वर्षोंके भीतर पूर्ण हो सकता है। जो जाग्रत् पुरुष हैं, उन्हीं की समझमें यह आता है कि संसारका सुख मिथ्या है, माना हुआ है और अस्थिर है, वहीं यह सोचते हैं कि इस थोडेसे जीवनके समयमें यदि किसी प्रकार न्यूनाधिक रूपसे यशकी प्राप्ति हो गयी या मानव-समाजकी ओरसे कुछ विशेष सम्मान या उच्च पदाधिकार मिल गया, अथवा यहाँपर अधिकाधिक ऐश्वर्य, भोग-सुख, वैभव ही प्राप्त हो गये, तो कबतक यह जीवनका साथ देंगे? क्योंकि जगत्में तो कुछ भी एकरस और स्थिर नहीं है, तब इन सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिके अगणित सम्बन्ध बढ़ाना, अहंता, ममतासे आबद्ध होना मूर्खता ही है। यह विचार करके ही जाग्रत् पुरुष त्यागका पक्ष लेते हैं। जाग्रत् पुरुषके ही उद्‌गार हैं कि झूठे सुख को सुख कहैं, मानत हैं मन मोद। जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ जाग्रत् पुरुष ही देख पाते हैं कि संसारमें अज्ञानके कारण सुखकी लिप्सावश किस प्रकार अनेकों तरहके दुःख भोगते रहते हैं। यह सभी मोहसे मोहित हुए मानव, अधिक-से-अधिक दिन जीनेकी तो इच्छा करते हैं, परंतु जीवनको सुन्दर बनानेकी विधि नहीं जानते। ऐसी मूढ़ बुद्धिवाले मनुष्य संसारमें विविध पदार्थोंके तथा देहके सुखों और सांसारिक सम्बन्धियोंके बाह्य रूपको ही देखकर मुग्ध
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